खरी-अखरी : आरएसएस के अस्तित्व को ही चुनौती दे रहा संघ का पूर्व प्रचारक ! क्या करेगा संघ ?
आस्तीन में सांप पालना, बैलगाड़ी के नीचे चलकर गाड़ी खींचने का भरम पालना या और जो कहावत या किस्से जो भी याद आती हो याद कर लिया जाय कुछ ऐसी ही हालत कर दी है गुजराती लाॅबी अपने आप को एक राजनीतिक दल का भरम पाले एक दुनिया के सबसे बड़े अंपजीकृत संगठन की। लगता तो यही है कि यह सीधी चेतावनी है उस अंपजीकृत संगठन के मुखिया को अगर अभी नहीं समझे तो वजूद खत्म कर दिया जायेगा या उस संगठन का मुखिया भी गुजराती लाॅबी अपनी मरजी के मुताबिक जिसे चाहेगी बनाकर बैठा देगी कोई कुछ नहीं कर पायेगा। जैसे अपने राजनीतिक दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद पर बिना किसी से रायशुमारी किये एक जमूरे को बैठा दिया गया है। ऐसा करके दिल्ली ने नागपुर को खुली चुनौती दे दी है। सवाल है अब नागपुर क्या करेगा ? नागपुर में दिल्ली की शिकायतों की पोटली खुल रही है। तो क्या शिकायतों की पोटली के आसरे राजनीतिक तौर पर सफलता की सीढ़ियां चढ़ती हुई दिल्ली की अहंकारी जोड़ी को नागपुर कोई चुनौती दे पायेगा या कहें नकेल कस पायेगा ? नागपुर में जो शिकायतों की पोटली खुल रही है उसके पीछे न तो किसी राज्य के मुख्यमंत्री को लेकर शिकायत है न ही किसी को राज्यपाल बनाने या बदलने की सोच है, न ही किसी को मंत्री बनाने या मंत्री पद से हटाने की मांग है दरअसल जो कुछ है वह बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष को लेकर है। और अध्यक्ष का मतलब बहुत साफ है। राजनीतिक तौर पर अध्यक्ष संगठन में और खास तौर पर चुनाव के वक्त जो चाहता है वही होता है। लेकिन 2014 के बाद बीजेपी की जो राजनीतिक लकीर बदली उसमें जो दिल्ली की सत्ता ने सोचा वही हुआ सत्ता और संगठन के तौर पर। अमित शाह और जेपी नड्डा का अध्यक्ष होना तो ठीक ठाक था लेकिन जिस तरह से पार्टी लाइन को धत्ता बताते हुए गुजराती जोड़ी ने अध्यक्ष को स्थापित कर दिया उससे न केवल बीजेपी के वरिष्ठ और कद्दावर नेताओं को चौंका दिया बल्कि आरएसएस को भी सकते में ला दिया है। पितृ संगठन आरएसएस को लोकसभा, विधानसभा चुनावों का वास्ता देकर गुजराती जोड़ी अध्यक्ष के चुनाव को टालती रही है और संघ भी इसी मुगालते में रहा आया कि बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव तो उससे गुफ्तगू किये बगैर होगा नहीं। अध्यक्ष को लेकर कभी शिवराज सिंह चौहान तो कभी वसुंधरा राजे सिंधिया तो कभी योगी आदित्यनाथ के साथ संजय जोशी का नाम चर्चाओं में तैरता रहा लेकिन गुजराती जोड़ी ने सबको चौंकाते हुए नितिन नवीन को ठीक उसी तरीके से अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा दिया जैसे मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में पर्ची मुख्यमंत्रियों को बैठा दिया गया था। और इस सबका एक ही मतलब निकलता है कि गुजराती जोड़ी चाहती है कि दिल्ली ही सत्ता का एकमात्र केन्द्र बने सब कुछ यहीं से चले। वैसे देखा जाए तो मोदी – शाह की जोड़ी ने जेपी नड्डा के जरिए संघ को बहुत पहले ही साफ संकेत दे दिया था यह कहलाते हुए कि अब बीजेपी अपने फैसले लेने के लिए समक्ष हो गई है अब उसे आरएसएस रूपी बैसाखी की कोई जरूरत नहीं है। गुजराती जोड़ी द्वारा दिये गये झटकों से संघ हिचकोले खाने लगा है !
दिसम्बर 2025 चलाचली की बेला में है। मार्च – अप्रैल 2026 में देश के भीतर 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। बतौर बड़ा राज्य असम ही है जहां पर बीजेपी की मौजूदगी है। पश्चिम बंगाल में सत्ता पाने के लिए बीजेपी संघ की मदद से एक लंबे अरसे से प्रयासरत है। बीजेपी ने जिन राजनीतिक मुद्दों को हवा दी उन मुद्दों की डोर पकड़ कर संघ स्वयंसेवकों ने भी मैदान में कूदकर निशाने पर ममता बनर्जी को लिया। साम्प्रदायिकता की एक लकीर खींची गई। सीएए एवं एनआरसी को लेकर भी सवाल खड़े हुए। अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में शाइनिंग इंडिया के नारे के जरिए प्रमोद महाजन ने जो राजनीतिक बिछात बिछाई थी उसमें शाइनिंग इंडिया की चमक और उसके भीतर का अंधियारा दोनों को ही संघ अनमने भाव से देख रहा था यानी उसे अच्छा नहीं लग रहा था। स्वयंसेवक बाहर नहीं निकला और बीजेपी चुनाव हार गई। अटल बिहारी वाजपेयी के दौर में ही यह मैसेज निकलकर आया था कि किसी भी दूसरे राजनीतिक दल को बीजेपी के साथ खड़ा नहीं होना चाहिए। तभी तो कुछ सवाल जहन में थे नितीश कुमार और बाला साहब ठाकरे के। 2014 के चुनाव परिणामों ने भी खुला मैसेज दिया कि अगर बहुमत के साथ खड़े राजनीतिक दल के साथ आप गलबहियाँ डालते हैं तो आपका कैडर, आपका संगठन खत्म हो जायेगा। संघ परिवार के साथ में छोटे व्यापारियों का जुड़ाव है। वह गुरू दक्षिणा के रूप में संघ को आर्थिक सहयोग भी देता है लेकिन संघ के राजनीतिक संगठन का जुड़ाव छोटे व्यापारियों के साथ न होकर बड़े – बड़े कार्पोरेट्स, पूंजीपतियों के साथ है। यानी कार्पोरेट्स और पूंजीपतियों पर संघ की नहीं सत्ता की पकड़ है। और जिसके हाथ में सत्ता है उसने अपने मुताबिक अध्यक्ष चुन लिया। बीजेपी के भीतर वरिष्ठ और कद्दावर नेताओं की एक लंबी कतार है, जिसमें पूर्व अध्यक्ष, पूर्व मुख्यमंत्री, कैबिनेट मंत्री भी शामिल हैं, और ये सभी इस वक्त आरएसएस का दरवाजा खटखटाते हुए कह रहे हैं कि कुछ तो निर्णय कीजिए। यह निर्णय लेने की घड़ी है अन्यथा सब कुछ हाथ से निकल जाएगा।
फिलहाल तो संघ के भीतर पसरा सन्नाटा यही कह रहा है कि राजनीतिक पहचान मोदी – शाह की है। राजनीतिक निर्णय लेने की क्षमता भी मोदी – शाह में ही है। कार्पोरेट्स की पूंजी पाॅलिटिकल इकोनॉमी की तर्ज पर फंडिंग के जरिए बीजेपी के पास कैसे और किस रूप में आयेगी यह भी मोदी – शाह ही तय करते हैं। अब तो बात बढ़ते – बढ़ते यहां तक आ गई है कि जब हम ही सब कुछ तय करते हैं तो अब बीजेपी भी हम ही चलायेंगे। बीजेपी को चलाने के लिए अब अध्यक्ष भी हमारा ही होगा। तो क्या दिल्ली की बढ़ती हुई उम्र बीजेपी और संघ परिवार की उम्र को घटा रही है। उम्र के इस पड़ाव में दिल्ली की सत्ता कुछ भी गवांना नहीं चाहती है, सब कुछ पा लेना चाहती है। शायद इसीलिए सारे संवैधानिक संस्थानों यहां तक कि इलेक्शन कमीशन और देश की सबसे बड़ी अदालत को भी अपने अनुकूल कर लिया गया है। इसका आरोप विपक्ष खुल्लमखुल्ला लगा भी रहा है। सवाल यह है कि तीन महीने के बाद 5 राज्यों में होने वाले चुनाव के पहले संघ क्या कोई निर्णय लेगा ? बीजेपी के भीतर उन नेताओं के सामने एक कठिन घड़ी है जहां पर उनकी अपनी राजनीतिक उम्र अब बीजेपी के नये अध्यक्ष नितिन नवीन के आने के बाद खत्म हो जायेगी ? अगर सारे निर्णय, सारे चेहरे, सारी पहचान एक ही शख्स के ईर्द गिर्द है तो फिर इतनी बड़ी पार्टी और सांगठनिक ढ़ाचे (बीजेपी) के मायने क्या हैं ?

सरसंघचालक मोहन भागवत इस हकीकत से वाकिफ हैं कि नैरेटिव मायने रखता है तभी तो वह स्वयंसेवकों से कह रहे हैं कि नैरेटिव की दिशा में मत दौड़िए नैरेटिव के आसरे चीज़े बदल जाती हैं। लेकिन अगर राजनीति नैरेटिव के आसरे ही चलती है तो फिर संघ उसमें कैसे हिस्सेदारी नहीं रखेगा। बंगाल का चुनाव दिल्ली सत्ता की सांसे फुला रहा है। उसे पता है कि अगर बंगाल में उसका राजनीतिक प्रयोग सफल नहीं हुआ तो फिर भूल जाइए कि देश के भीतर विपक्ष की राजनीति को धराशाई कर भी पायेंगे। आर्थिक नीतियों के आसरे छत्रपों पर कसी गई नकेल और अब मनरेगा के बाद जी राम जी के जरिए राज्यों के ऊपर जो बड़ा बोझ 40 फीसदी का डाला गया है उसमें मुश्किल होगी। इसलिए बंगाल में कोई चेहरा नहीं होने के बाद भी मोदी – शाह को चुनाव तो हरहाल में, हर कीमत पर जीतना ही होगा (चुनाव आयोग का सहारा) । जीतना तो हरहाल में ममता बनर्जी को भी होगा। 2014 के बाद से सारे नैरेटिव दिल्ली से बने जिसमें राज्यपाल की भूमिका महत्वपूर्ण है। संघ स्वयंसेवकों ने बीजेपी को उसकी कल्पना से ज्यादा 1.5 करोड़ पिछले चुनाव में वोट दिलवा दिये। यानी ममता बनर्जी और बीजेपी के बीच सिर्फ 60 लाख वोटों का अंतर है। जहां ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी को 2 करोड़ 90 लाख वोट मिले थे वहीं बीजेपी को 2 करोड़ 30 लाख वोट मिले थे। अभी तक तो यही खबर मिल रही है कि एसआईआर के जरिए लगभग 48 लाख वोटर गायब कर दिये गये हैं। गुजराती जोड़ी ने पार्टी के वरिष्ठ-कद्दावर नेताओं और आरएसएस को नजरअंदाज करते हुए बीजेपी का अध्यक्ष तो स्थापित कर लिया है लेकिन बंगाल चुनाव को लेकर चिंतित नजर आ रही है क्योंकि उसे पता है कि अगर संघ के स्वयंसेवक जमीन पर नहीं उतरे तो वह बंगाल में कितनी भी मशक्कत खुद और चुनाव आयोग के आसरे कर ले वह अपने पुराने वोटरों को भी खो देगी। बंगाल के भीतर बहुत बड़ी संख्या में छोटा व्यापारी संघ से जुड़ा हुआ है जिसने बीजेपी को वोट किया था। वह इस दौर में दिल्ली की नीतियों के कारण संकट में है। देश की आर्थिक परिस्थितियां एकतरफा हो चली है। सत्ता कार्पोरेट्स और पूंजीपतियों के साथ कदमताल कर रही है। छोटी इंडस्ट्री चलाने वाले गायब होते चले जा रहे हैं।
असम में तो सिर्फ 6 लाख वोटों का अंतर है। यहां पर बीजेपी को लगभग 63 लाख 84 हज़ार तथा कांग्रेस को लगभग 57 लाख 3 हज़ार वोट मिले थे। 6 लाख वोटों की खाई को पाटने के लिए कांग्रेस कितनी मशक्कत करेगी यह बात अलहदा है लेकिन संघ एक झटके में बीजेपी को असम में झटका दे सकता है। यानी यहां भी बीजेपी को अपनी नैया पार लगाने के लिए संघ की जरूरत है। तमिलनाडु में वैसे तो सीधी फाइट एआईडीएमके और डीएमके के बीच में है लेकिन बीजेपी अपने तौर पर चाहती है कि उसे यहां कांग्रेस से ज्यादा वोट मिल जायें। पिछले चुनाव में कांग्रेस को 19 लाख 76 हज़ार तो बीजेपी को 12 लाख 13 हजार के करीब वोट मिले थे। यानी बीजेपी को 7 लाख वोट कम मिले थे कांग्रेस की तुलना में। डीएमके को 1 करोड़ 74 लाख तथा एआईडीएमके को 1 करोड़ 53 लाख वोट मिले थे। पुडुचेरी में भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच नम्बर एक की लड़ाई है लेकिन यहां पर गठबंधन के साथी मायने रखते हैं। यहां पर भी कांग्रेस और भाजपा के बीच बहुत बारीक अंतर है। आरएसएस की जितनी (70 हज़ार से अधिक) शाखाएं देशभर में लगती हैं उसमें सबसे ज्यादा संख्या केरल में लगने वाली शाखाओं की है लेकिन उसे केरल में वोट सबसे कम मिलते हैं। केरल में तो सीधा मुकाबला एलडीएफ और यूडीएफ के बीच में है और दोनों जानते हैं कि इस बार यूडीएफ का पलड़ा भारी है। पिछली बार एलडीएफ को 1 करोड़ 5 लाख तथा यूडीएफ को 82 लाख 83 हज़ार के आसपास वोट मिले थे। यानी वोटों का अंतर 23 लाख के आसपास था। इसका सीधा सा अर्थ है कि बीजेपी की मौजूदगी दक्षिण भारत में ऊंट के मुंह में जीरे की माफिक है।
तीन महीने बाद होने वाले पांच राज्यों के चुनाव को लेकर दिल्ली की धड़कनें असंतुलित हो रही है क्योंकि उसने पार्टी अध्यक्ष चयन में संघ को नजरअंदाज तो कर दिया है लेकिन वह यह भी जानती है कि अगर संघ का स्वयंसेवक मशक्कत करने के लिए जमीन पर नहीं उतरा तो उसका राजनीतिक भविष्य तो दांव पर लग जायेगा। क्योंकि उसने कार्पोरेट्स और पूंजीपतियों के साथ खड़े होकर जिस तरह से छोटे कामगारों के रास्ते में कांटे बो कर जख्म दिये हैं उन्हें अगर कोई सहला सकता है तो वह सिर्फ और सिर्फ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का स्वयंसेवक। लेकिन दूसरा सच यह भी है कि दिल्ली की सत्ता संघ को डरा भी रही है कि अगर हम चुनाव हारे तो आप जेल में होंगे ! आप जेल से मतलब है कि जिस तरीके से राहुल गांधी संघ को लेकर व्यक्तव्य देते रहते हैं, खुले तौर पर प्रतिबंध लगाने की धमकी भरी आवाजें कांग्रेस के भीतर से निकलती रहती हैं वो दरअसल आरएसएस को कहीं ना कहीं सत्ता के करीब लाकर खड़ा कर देती है। संघ के स्वयंसेवकों की वह कतार जो कहीं न कहीं सावरकर के साथ जुड़ी है और गुरू गोलवलकर की सोच से प्रभावित है उसके मन में एक ही सवाल है ना तो हिन्दुत्व बचेगा और ना ही संगठन बचेगा तो आप क्या कर लोगे ? तो फिर रास्ता तो निकालना होगा। सत्ता को अपनी मनमर्जी से हांकने के लिए चुनावी परिणाम ही मायने रखेंगे।
इतना तो साफ – साफ दिखाई दे रहा है कि बीजेपी एक नई टीम तैयार कर रही है लेकिन बीजेपी का मतलब इस बार संघ परिवार नहीं है। बीजेपी का मतलब सम्पूर्ण बीजेपी भी नहीं है। यह दिल्ली की सत्ता को टिकाये रखने की ऐसी मशक्कत है जिसमें वह जो निर्णय लेंगे, जिस पर ऊंगली रखेंगे, जिससे टेलिफ़ोन पर बात कर लेंगे, जिसके कांधे पर हाथ रख देंगे वही सब कुछ हो जायेगा। क्या यह सारे मैसेज नागपुर को मंजूर हैं ? जो नजर आ रहा है दरअसल वह उजियारा नहीं है। जो नजर नहीं आ रहा है उसके भीतर एक संघर्ष है, उसके भीतर एक चुनौती है। यानी टकराव तो होना है लेकिन टकराव की मियाद तीन महीने की है जब परिणाम भी सामने आ जायेंगे। उस परिणाम से पहले सही मायने में समय सिर्फ 30 दिनों का ही है। जिसमें यह साफ हो जायेगा कि “बहुत हो चुका या फिर यही होगा जिसे जो करना है कर ले”। यानी राजनीतिक तौर पर विपक्ष से नहीं दिल्ली की सत्ता की लड़ाई अब अपने भीतर से है, अपने साथ खड़े हुए लोगों से है, अलग सोच रखने वाले नेताओं से है, कार्यकर्ताओं से है, स्वयंसेवकों से है।
अश्वनी बडगैया अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार




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