बारूद के ढेर पर बैठा अग्रवाल समाज : दिखावे की चकाचौंध, टूटती संवेदनाएँ और बिखरती पहचान का कठोर सच
अग्रवाल समाज आज बाहर से जितना संगठित, समृद्ध और सुसंस्कृत दिखाई देता है, भीतर उतना ही तनावग्रस्त, बिखरा हुआ और दिशाहीन होता जा रहा है। भव्य आयोजन, आलीशान भवन, चमकते मंच और सोशल मीडिया पर सक्रियता समाज की ताकत का प्रतीक माने जा रहे हैं, लेकिन इन सबके पीछे संवेदनाओं का क्षरण और सामूहिक चेतना का कमजोर होना एक गंभीर सच्चाई बन चुका है। यह स्थिति अचानक पैदा नहीं हुई, बल्कि वर्षों से पनपते दिखावे, आडंबर, मौन और आंतरिक विघटन का परिणाम है। सच यही है कि अग्रवाल समाज आज एक ऐसे बारूद के ढेर पर बैठा है, जिसके विस्फोट की चेतावनी संकेत साफ दिख रहे हैं।
कमजोर सधार्मिक से दूरी: सबसे बड़ा खतरा
किसी भी समाज की मजबूती इस बात से आंकी जाती है कि वह अपने सबसे कमजोर सदस्य के साथ कैसा व्यवहार करता है। अग्रवाल समाज में आज सबसे चिंताजनक स्थिति यही है कि संघर्षरत सधार्मिक धीरे-धीरे समाज की मुख्यधारा से कटता जा रहा है। बीमारी, बेरोजगारी, विवाह में विलंब, मानसिक तनाव—इन सब समस्याओं के समाधान के लिए न तो प्रभावी तंत्र है और न ही सामूहिक संवेदना। इसके उलट, करोड़ों के आयोजनों और भव्य समारोहों को ही धर्म और समाज सेवा का पर्याय मान लिया गया है। यह प्रवृत्ति समाज की जड़ों को भीतर ही भीतर खोखला कर रही है।
नेतृत्व और संस्थाओं में बढ़ता दिखावा समाज के प्रबुद्ध वर्ग और नेतृत्व की भूमिका भी आत्ममंथन मांगती है। सेवा की जगह पद, प्रतिष्ठा और प्रचार की होड़ ने नेतृत्व को कमजोर किया है। मंच, भीड़ और कैमरे अब समाज सेवा के मापदंड बन गए हैं। परिणामस्वरूप, वास्तविक सेवा और तप की आवाज शोर में दब जाती है। संस्थाएँ समाज को जोड़ने के बजाय कई जगह सत्ता संघर्ष का केंद्र बनती जा रही हैं, जिससे विश्वास और पारदर्शिता पर आघात हो रहा है।
अंदर से खोखला करती सामाजिक चुनौतियाँ
अग्रवाल समाज आज कई ऐसी समस्याओं से जूझ रहा है, जो दीर्घकाल में उसके अस्तित्व और प्रभाव को कमजोर कर सकती हैं.
देर से विवाह और अवास्तविक अपेक्षाएँ: योग्य युवक-युवतियाँ उम्र के महत्वपूर्ण पड़ाव पार कर रही हैं, जिससे तनाव और सामाजिक असंतुलन बढ़ रहा है।
जनसंख्या में गिरावट: एकल संतान प्रवृत्ति और करियर दबाव समाज की जनसांख्यिकीय संरचना को कमजोर कर रहे हैं।
आर्थिक असमानता और आपसी जलन: सहयोग की जगह प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या ने सामूहिक शक्ति को क्षीण किया है।
युवाओं की दूरी: युवा समाज से जुड़ना चाहते हैं, लेकिन उन्हें गहराई और मार्गदर्शन के बजाय केवल आयोजन दिखाई देते हैं।
वृद्धजनों की उपेक्षा: अनुभव और संस्कार के स्तंभ माने जाने वाले बुज़ुर्ग समाजिक संवाद से कटते जा रहे हैं।
संगठनात्मक बिखराव और राजनीतिक शून्यता: अनेक समितियाँ, गुटबाजी और स्पष्ट सामूहिक नीति का अभाव समाज को कमजोर बना रहा है।
आवश्यकता है प्राथमिकताओं को बदलने की
- दिखावे की जगह संवेदना को धर्म का केंद्र बनाने की
- नेतृत्व से प्रचार नहीं, सेवा और उत्तरदायित्व की अपेक्षा करने की
- युवाओं को आयोजन नहीं, दृष्टि और मार्ग देने की
- संस्थाओं को सत्ता नहीं, सेवा के केंद्र के रूप में विकसित करने की
- और एकजुट होकर सामाजिक व राजनीतिक आवाज खड़ी करने की
यदि समय रहते यह आत्ममंथन नहीं हुआ, तो बाहरी भव्यता समाज को नहीं बचा पाएगी। इतिहास गवाह है । जो समाज अपने भीतर की आग नहीं बुझाता, वह बाहर की आँधियों से कभी सुरक्षित नहीं रह पाता।





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